घर घर में हो दीवारें मुखिया जी का मकसद है पांच बरस के बाद मिले फिर भी जनता गदगद है


कवि ओमप्रकाश यति की इन लाइनों पर गौर करिए-
जोखिम था उनके चेहरे पर धब्बे बतलाना
सबने ही तय कर डाला दर्पन झूठा था
जानवरों को खबर मिली तो काटे खून नहीं
जो फसलों का रखवाला था एक बिजूका था।
बड़ा मुश्किल होता जा रहा है लोगों को समझना। किसिम किसिम के लोग हैं। गोरे हैं, काले हैं, भूरे हैं। बूढे हैं, जवान हैं, बच्चे हैं। औरत हैं आदमी हैं। सारी किस्मों को मिला लें तो भी इस देश में दो तरह के लोग मोटे तौर पर नजर आते हैं। एक जिनके पास एक्स, वाई, जेड, जेड प्लस या किसी भी किस्म की सिक्युरिटी है। दूसरे जिनके पास कोई सिक्युरिटी नहीं है। पहली किस्म वाले राज करते हैं, शासन चलाते हैं। किसी न किसी किस्म की पावर में होते हैं। दूसरी कैटेगिरी में हमारे आपके जैसे लोग आते हैं, जिन पर राज किया जाता है। जो हमेशा माथे पर डर, खौफ या परेशानी का स्थायी भाव लिए रहते हैं। कोई न कोई डर इन्हें हमेशा तंग करता है। कभी महंगाई का डर तो कभी बच्चों की पढ़ाई का। कभी डकैत का तो कभी बकैत का।
पहली तरह के लोगों के परिवार, बच्चे, बेटी और महिलाएं तुलनात्मक रूप से सुरक्षित होती हैं। इनके साथ एक्स, वाई या जेड होती ही है। लिहाजा यह लोग बेखौफ होकर परिवार और बच्चों के साथ नाइट शो फिल्म देख सकते हैं। लाल या नीली बत्ती वाली गाड़ी बीच सड़क पर लगाकर आइसक्रीम खा सकते हैं। दूसरी तरह के लोगों का हाल भी दूसरा ही होता है। रात दिन घर चलाने की जद्दोजहद। ऐसे परिवारों में बड़ों की आंखें हमेशा दरवाजों पर लगी रहती हैं कि कब बच्चे घर वापस आएंगे। खासतौर पर बेटियां। घर की बच्चियों को बचपन से ही सिखाया जाता है कि कोई छेड़खानी हो तो इग्नोर करें। चूंकि इनके साथ एक्स, वाई या जेड नहीं होती लिहाजा इस श्रेणी के लोग परिवार के साथ फिल्म का नाइट शो नहीं देखते। इसी तबके में आने वाली महिला पुलिस तक बीच सड़क पर छेड़ दी जाती है। छेड़ने वाला अगर पहली श्रेणी वालों का चम्पू हो तो उसका अपना महकमा भी न्याय नहीं दिलवा पाता। इस तबके के लोग अपनों के लिए नहीं लड़ते। यह लोग अपनों से ही लड़ते हैं। यह वर्ग अपनी दिक्कतों पर सिर्फ बात करता है, उनके लिए लड़ता नहीं, शिकायत नहीं करता। इनके संघर्ष ज्यादातर पहली श्रेणी वालों की जरूरतों के हिसाब से होते हैं।
वैसे संघर्ष पहली किस्म के लोगों के भी हैं। पहली किस्म वालों की फाइट उस पद या कुर्सी पर बने रहने की होती है जो आपको एक्स, वाई या जेड सिक्युरिटी मुहैया कराती है। यह लड़ाई रोटी, भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार की लड़ाइयों जैसी नहीं है। अक्सर इस क्लास के आपसी संघर्ष में दूसरी किस्म के लोगों को वीरगति प्राप्त होती है। दूसरे किस्म के लोग पहली किस्म के लोगों की लड़ाई को अपने दिल पर ले लेते हैं और फिर मुजफ्फरनगर जैसे कांड होते हैं। पहली किस्म के लोग आपस की लड़ाई में बेहद शिष्ट और लोकतांत्रिक होते हैं। वह कभी ऐसा कुछ नहीं करते, जिससे अपने किस्म के लोगों को कुर्सी के अलावा कोई नुकसान हो। वक्त बदलने पर पहली श्रेणी के लोग प्रतिद्वन्द्वियों के साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं, जैसा सिकंदर ने पोरस के साथ किया था। अक्सर इनकी लड़ाई फिक्स होती है। दूसरी तरह के लोग इनकी फिक्स लड़ाई को असली समझते हैं। फिक्स लड़ाई के फेर में यह तबका अपने युद्ध भूल जाता है। अपनी गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और भ्रष्टाचार की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता। यह तबका नकली मुद्दों पर असली लड़ाई लड़ता है और हर युद्ध में शहीद होता है। यह सिलसिला आजादी के बाद से अब तक बदस्तूर चल रहा है। यही इस देश का लोकतंत्र है। इस लोकतंत्र को समर्पित यति की दो और लाइनें, फिर बात खत्म-
घर घर में हो दीवारें मुखिया जी का मकसद है
पांच बरस के बाद मिले फिर भी जनता गदगद है।

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